November 24, 2024
Tariq Azami

बीसीआर न्यूज़ (कलम का सिपाही तारिक़ आज़मी/कानपुर): औद्योगिक नगरी कानपूर और मेरा रिश्ता मेरे जन्म के साथ जुड़ा है। जैसे अमूमन बच्चे अपने ननिहाल को लाड प्यार की वजह से ज़्यादा चाहते है वैसे मैं भी था। ननिहाल होने के वजह से बचपन से ही मेरा कानपुर से रिश्ता रहा है। बचपन की दहलीज़ पार कर जब जवानी की अंगड़ाई में कदम रखा तो दाल रोटी की जद्दोजहद मुझे सूबे की राजधानी तक लेकर पहुच गई। कानपूर और लखनऊ का आवागमन इतना सरल है कि छुट्टी मिलते ही कानपूर भाग आता था। लंबे समय से इस शहर और इसके रुके हुवे विकास को देखता आया हु। शायद यही अनुभव आज के इस लेख में मेरे काम आये।
> अपनी मुद्दे की बात पर आने से पहले मैं आपको महापुरुष,साबरमती के संत जिसने बिना किसी हथियार के हमको आज़ादी दिलवा दी यानि मोहनदास करम चंद्र गांधी अर्थात महात्मा गांधी की एक कहानी जो बचपन में पढ़ी थी से करना चाहता हु। एक बार गांधी जी के पास उनके एक चाहने वाले अपने बेटे के साथ आये और उन्होंने गांधी जी से आग्रह किया कि उनका बेटा मीठा बहुत खाता है अगर वो उसको समझाए तो वो शायद मीठा खाना कम कर दे। गांधी जी ने उनको कहाकि 3 दिनों के बाद वो अपने बेटे के साथ दुबारा आये। 3 दिनों बाद आने पर गांधी जी ने उनको दुबारा 3 दिनों के बाद आने को कहा। तीसरी बार आने पर गांधी जी ने उनके बेटे को अपने पास बुलाकर कहाकि बेटा मीठा कम खाया करो स्वस्थ्य के लिए हानिकारक है। केवल इतना कहकर उसको जाने के लिए कह दिया। ये देख गांधी जी के उक्त अनुयायी को मन में कौतुहलता जाग गई कि अगर गांधी जी को केवल इतना ही कहना था तो पहले दिन ही कह देते। उन्होंने इसका कारण जानना चाहा तो गांधी जी ने बहुत ही नम्र भाव में उनसे कहा कि जिस दिन वह पहली बार उनसे मिलने को आये थे उस दिन वह खुद मीठा ज़्यादा खाते थे। इस कारण उन्होंने उसको कुछ नहीं कहा था आज जब मैंने मीठे का लगभग परित्याग कर दिया है तो आज इन्होंने मना किया। इस कहानी से यह ज़ाहिर होता है कि हमको दूसरे को कोई उपदेश देने के पहले खुद को बदलना चाहिए।
> आइये अब मुख्य मुद्दे पर चलते है। कानपुर में अक्सर की यह रीत बन गई है कि सड़क के किनारे कुछ पुलिस कर्मी अपने साथ एक दो पत्रकारो को लेकर बैठ जाते है और वाहन चेकिंग के नाम पर केवल उन वाहनों को रोक दिये जाता है जिनपर प्रेस शब्द लिखा हो। उनके वाहन के कागज़ात देखने के बाद उनके प्रेस के आईकार्ड मांगे जाते है। उस व्यक्ति के आईकार्ड दिखा दिए जाने के उपरांत प्रथम दृष्टीयतः अगर वह किसी नामचीन अख़बार से नहीं है तो तत्काल उसको “फर्जी” होने का प्रमाणपत्र निर्गत कर दिये जाता है। यदि वह पत्रकार अपने संपादक से बात करवाता है तो भी ये लोग उसको फर्जी का प्रमाण पत्र निर्गत कर देते है और यदि उसने प्रसाद नहीं चढ़ाया तो उसके साथ मारपीर की जाती है। मौका मिलने पर उसको बंद भी करवा दिया जाता है। यह अक्सर का हो गया है सोशल मीडिया पर ऐसे फ़ोटो और स्टेटस की भरमार है।
अभी पखवारा गुज़रा है कि एक पत्रकार एक वाहन चेकिंग में पकड़ा गया और वो किसी डकैती में संलिप्त था पाया गया। जाँच हुई और उसके साथ के दो साथी भी पकड़े गए जो होमगार्ड थे। दूसरे दिन कप्तान साहेब ने एक आलीशान प्रेस कान्फ्रेंस में इस घटना और अपने गुड वर्क की खूब चर्चा की। बातचीत में मौखिक आदेश तक दे डाला कि अब पत्रकारो की एक निजी संस्था को साथ में लेकर प्रेस लिखी गाडियो की चेकिंग की जायेगी और फर्जी प्रेस लिखी गाडियो पर कड़ी कार्यवाही होगी। फिर क्या जिनकी चांदी काटने की उम्मीद जगी उन्होंने इस मौखिक आदेश को मोटी सुर्खिया प्रदान कर दी। मैं इस आदेश के विरोध में आया क्योकि मुझको इसका साइड इफेक्ट पता था। इससे विशेष संगठन के चंद लोग सभी छोटे और मझोले मीडिया हाउस के पत्रकारो को फर्जी करार दे देंगे फिर उनके साथ अभद्रता और उनका शोषण चालू हो जायेगा। मेरे विरोध का साथ मेरे संगठन ने भी दिया और हम इसके विरोध में विधानसभा घेरने और गृह मंत्री को ज्ञापन देने की तैयारी करने लगे। हमारे विरोध को देखकर कप्तान साहेब ने इस प्रकार के आदेश से इनकार कर दिया। जबकि उस प्रेस कांफ्रेंस में मेरा भी पत्रकार मौजूद था। ठीक कप्तान साहेब के बगल में कुर्सी डाल लगभग फ़ैल के बैठे हुवे अंगड़ाई लेते उक्त संगठन के एक करता धर्ता महोदय का आदेश जे समय खिला चेहरा बहुत कुछ बयान कर रहा था।
खैर जब कप्तान साहेब ने ऐसा आदेश ही नहीं दिया तो हमने भी की आगे की रणनीति नहीं बनाई। मगर कानपूर जिस प्रकार से पत्रकारो के लिए कब्रगाह बनता जा रहा है उससे लोकतंत्र का चौथा यह स्तम्भ इस शहर में सबसे ज़्यादा खतरे में है। आज मेरे पास कई ऐसे सवाल है जिसका जवाब शायद प्रशासनिक तंत्र के पास भी न हो। सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि आखिर इन छोटे मझोले पत्रकारो पर सबसे अधिक हमलो की वारदात जूही थानाक्षेत्र में ही क्यों होता है। आखिर कौन सा ऐसा नियम है जिसके तहत छोटे और मझोले मीडिया हाउस के पत्रकारो को खुद को पत्रकार कहने का अधिकार नहीं है।
कप्तान साहेब आइये कुछ नियमो की बात कर लिया जाता है। पत्रकार जो किसी भी मीडिया हाउस से जुड़ा है और उसको ऑथरिटी लैटर जारी हुवा है तो प्रेस नियमावली के तहत उसके बिना अपराधिक कारणों से पत्रकार होने न होने की जाँच पीआइबी के पत्र पर एलआइयू के द्वारा होती है जिसमे ज़िला सूचना कार्यालय की भी रिपोर्ट लगती है। प्रश्न यह है कि आपकी पुलिस या आपका कथित वरदहस्त प्राप्त कोई पत्रकार संगठन आखिर कैसे 2 मिनट में यह साबित कर देता है कि ये पत्रकार है या नहीं है। यदि यह इतना आसान है तो फिर आप तत्काल इसकी सूचना सरकार को दे और सरकार इन दोनों विभागों को खत्म करके ये कार्य प्रदेश स्तर पर आपके अधिनस्थो को प्रदान कर दे। प्रतिवर्ष करोडो रुपया सरकार इस दो विभागों पर खर्च करती है। ये पैसे बच जायेगे और फिर उसी पैसो से जनता की कुछ भलाई की परियोजना चलाई जा सकती है। हम मीडिया वाले अपने वाहन पर प्रेस लिख कर चले और कोई काबुल की इस आबादी में एक आध घोड़ो के बीच में गधा निकल गया तो यह स्थिति है कि सबको कटघरे में खड़ा किया जा रहा है।सरकार ज़रा अपने अधिनस्थो के क्रियाकलाप पर भी निगाह दौड़ा लीजिये सर। अभी एक दरोगा ने अपनी पत्नी के टुकड़े कर दिए आपके ज़िलों में। इससे क्या सबक लेते हुवे आप सभी दरोगाओं के परिवार की जाँच करवा रहे है क्या कि ऐसा कोई और तो नहीं है जिसके परिवार में ऐसा तनाव है। उसी पत्रकार के साथ 2 होमगार्ड भी पकड़े गए है। आपके शहर में क्या पुरे प्रदेश में कई अपराधिक घटनाये ऐसी हुई है जिसमे होमगार्ड के जवान पकड़े गए है। आप इस विभाग की भी जांच करवा रहे है क्या सर। अभी कानपुर में आईजी ऑफिस में तैनात एक कांस्टेबल के बेटे ने लूट की थी एक व्यापारी के साथ पकड़ा गया प्रेस कांफ्रेंस में खुलासा भी हुवा। जो पत्रकार के प्रकरण में हुवा यदि उसकी बराबरी की जाये तो आपको प्रत्येक कांस्टेबल कें बच्चों की जांच करवाना चाहिए की पुलिस के बेटे के आड़ में कोई और अपराधी तो नहीं छुपा है।
हम पत्रकार अगर अपने वाहनों पर अपनी पहचान लिखते है तो बड़ी आपत्ति आती है। चलिए सर नियमो की भी बात कर लिया जाये अब। नियमावली हमको इसकी अनुमति देता है कि हम अपने वाहन पर अपनी पहचान लिख सकते है। परंतु कप्तान साहेब एक नियम और भी है थोडा उसपर भी ध्यान दे लिया जाये। पुलिस नियमवाली के अंतर्गत किसी भी निजी वाहन अथवा निजी भवन पर अथवा निजी कार्यालय पर पुलिस का मोनोग्राम नहीं लग सकता है। अब इस नियम को धरातल पर उतर कर देखते है। आज सड़को पर ऐसे वाहनों की भीड़ है जो आगे पीछे पुलिस का मोनोग्राम और पुलिस लगाये घूम रहे है। अगर इनकी गिनती की जाये तो आपके पुरे जनपद में तैनात आपके सम्पूर्ण अधिनस्थो से दोगुने निजी वाहन सड़क पर है। कप्तान साहेब नियमो को मुह चिढ़ाते हुवे आपके अधिनस्थो ने टेम्पो तक पर पुलिस का मोनोग्राम लगा बैठे। आखिर कौन सा ऐसा नियम है जिसके तहत आपके अधीनस्थ खुद के तो छोड़िये साहेब अपने रिश्तेदारो के भी वाहन पर पुलिस लिखवा बैठे है। नियमावली तो आपको भी अनुमति नहीं देती है कि आप खुद के निजी वाहन पर पुलिस अथवा पुलिस का मोनोग्राम लगवा सकते है तो फिर आपके अधिनस्थ किस नियमो के तहत यह करते है समझ के परे की बात है।
गांधी जी को दो गोलियों से मारा जा सकता है मगर उनके विचारो को कभी नहीं मारा जा सकता है। अपने कार्यालय में गांधी जी की फ़ोटो लगाने से बेहतर होता है कि उनके विचारो का सम्मान दिल में रखा जाये। शाब्दिक नहीं बल्कि सच्चाई के साथ उनके संदेशो को जीवन में स्थान दिया जाये। आप समाज को सुरक्षा प्रदान करने वाले तंत्र से जुड़े है। आपको देख कर समाज शिक्षा लेता है। आपका अनुशरण करता है आपको तो एक मिसाल कायम करना चाहिए।
कुछ भी हो मगर निष्कर्ष यह है कि कानपूर के एक पत्रकारो का संगठन के कुछ पत्रकार जो खुद को बड़े बैनर का पत्रकार होने का नाजायज़ फायदा उठाते हुवे कानपूर प्रशासन का सहयोग लेकर वहा के छोटे और मझोले तबके के मीडिया हाउस के पत्रकारो को निष्पक्ष काम नहीं करने देते है। अगर उनके दबाव में काम नहीं करता ये छोटे और मझोले मीडिया हाउस का पत्रकार तो ये उनको फर्जी पत्रकार करार देकर उनका अपमान और मारपीट कर उसको झूठे मुकदमो तक में फंसा देते है। ऐसा एक प्रकरण भी मेरी नज़र में है जिसमे एक टीवी चैनल के पत्रकार ने भू-माफियाओ के विरोध में समाचार चलाया और उसपर जानलेवा हमला भी हुवा। ये तो उस पत्रकार की एक ज़बरदस्त जुझारू क्षमता है कि वो चाकू लगने के बाद भी ज़िंदा बच गया। उसके शब्दों को सही मना जाये तो पुलिस महानिदेशक के आदेश के बाद भी आज तक इस प्रकरण में मुक़दमा कायम नहीं हुवा उलटे ऐसे ही चद स्वयंभू ने उसको ले देकर हल कर लेने की सलाह दी। जब वह नहीं माना तो उसी के ऊपर झूठा मुक़दमा कायम हो गया। ये हालात है कप्तान साहेब आपके अधिनस्थो की। आपके शहर में अगर कटु वचन बोला जाये तो लोकतंत्र के इस चौथे स्तम्भ की आज़ादी का गला घोट दिया जा रहा है।

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