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फिल्म समीक्षा: मसान
समीक्षक: अजय शास्त्री
डायरेक्ट: रनीरज घेवाड़
शैली: ड्रामा
संगीत: इंडियन ओशियन
कलाकार: ऋचा चढ़ा, श्वेता त्रिपाठी, संजय मिश्रा, विक्की कौशल
रेटिंग: 3 स्टार
सारांश
निर्देशक नीरज घेवान की पहली फिल्म मसान समाज की ओछी छवि को दर्शाती है जो पल-पल बदलती रहती है। कविता और दर्द को जोड़ती ये फिल्म, दमन, विद्रोह और पश्चाताप की कहानी को बयां करती है जो खूबसूरत वाराणसी के शमशान घाट में सुलगती है।
इस फिल्म में अनेक किस्म की विसंगतिया न ही सिर्फ हमें आश्चर्य चकित करती है बल्कि सोचने पर मजबूर भी करती है। कैसे सोशल मीडिया जैसे यूट्यूब और फेसबुक छोटे शहरों के लोगों की सोच और जीवन को हानिकारक तरीके से बदल रहा है, इस फिल्म में वो काफी प्राकृतिक लगता है।
‘जितना छोटा शहर उतनी छोटी सोच’, ये एक सीन में अपने गुस्से को जाहिर कर बोलती है फिल्म की मुख्य किरदार देवी पाठक (ऋचा चढ्ढा) जिसको एक साथी के साथ होटल में पकड़े जाने का कोई पछतावा नहीं है।
इसकी वजह से उसके पिता विद्याधर पाठक (संजय मिश्रा) को पुलिस से ब्लैकमेलिंग का दबाव भी पड़ता। ऐसा नहीं है कि देवी ने जो किया वो गलत था। यहां पर लड़के और लड़की की सोच जो वाराणसी की पुरानी परंपराओं की वजह से जकड़ी हुई है, वो छोटी है और उसे खुलने का मौका नहीं मिलता। देवी पाठक इस सोच की कहीं न कहीं शिकार है।
देवी अपने पिता की चिंता करती है, आधुनिक युग के कम्प्यूटर में उसका हाथ काफी साफ है वहीं वो विकास के बारे में सोचती है और किसी भी तरह की ग्लानी को अपने ऊपर हाबी नहीं होने देती।
दूसरी तरफ है दीपक कुमार (विकी कौशल) जो अपने खानदानी कार्य- घाट पर चिताओं को आग लगाना- से बाहर निकल सिविस इंजीनियरिंग की पढाई करता है और अपने से उच्च जाति की लड़की शालू गुप्ता (श्वेता त्रिपाठी) से प्यार करने की जुर्रत भी।
“भाग के जाना होगा तो भाग भी लेंगे”, इस लाइन से एक नई रोशनी को उजागर करती और अपने प्रेमी दीपक को भरोसा दिलाती है शालू जो मिर्जा गालिब जैसे शायरो की शायरी में शौक रखती है।
लेकिन इसमें प्रवक्ता है दीपक जो बड़ी खूबी से अचानक ही अपने प्यार की चिता को आग लगाने के बाद अपनी घुटी हुई जिंदगी से बाहर निकलता है। ठीक उसी तरह जिस तरह देवी अपने प्रेमी पियूष की मौत की ग्लीनि से बाहर निकलती है।
इन दोनों की कहानी को निर्देशक कभी नहीं जोड़ते सिवाए फिल्म के अंत में जब ये दोनों किरदार संगम का सफर एक ही नाव पर बैठकर करते है।
अफसोस और गुस्सा, ये दो ऐसे भाव है जिनका फिल्म में दबदबा है और जो हर तरह से फिल्म में जाहिर होते रहते है। एक सीन में विद्याधर पाठक खाने से सजी हुई थाली में हाथ धोता है और उसके ठीक बाद अपनी बेटी का चेहरा थप्पड़ों से लाल कर देते है। ये एक भाव है जो बंद दरवाजों में ही व्यक्त किए जाते और रुपहले पर्दे पर शायद ही पहले दिखाए गए है।
जो नहीं दिखाया गया है वो हैं बनारस के मुख्य आकर्षण जिनकी शायद यहां जरूरत भी नहीं थी। इसके बावजूद ये फिल्म खूबसूरत है। उसपर दुशयंत कुमार की कविताएं फिल्म में चार चांद लगाती है। “तू किसी रेल सी गुजरती है, मैं किसी पुल का थरथराता हूं।”
धन्यवाद देते है इंडियन ओशियन बैंड का और गीतकार वरुण ग्रोवर का जिन्होंने फिल्म को एक सुरमई दावत के तौर पर भी पेश किया है। फिल्म में अदाकारी का स्तर काफी ऊंचा है। संजय मिश्रा अपने हर भाव से हमें चौकाते है। ज्यादातर फिल्मों में हमें हंसा चुके संजय इस बार शांत और डरे हुए रहकर अदाकारी में अपना स्तर काफी ऊपर ले जाते है।
ऋचा चड्डा न ही सिर्फ देवी पाठक के किरदार को निभाती हैं, वो उसे जीतीं भी हैं। उनकी स्क्रीन प्रेसेंस इतनी मजबूत है कि आपने पिछले कुछ वर्षों में शायद ही देखी होगी।
विकी कौशल और श्वेता त्रिपाठी इतने प्यारे जोड़े के तौर पर नज़र आते है जिसको आप सिनेमाघरों से निकलकर भी काफी समय तक याद रखेंगे।
घेवान का वाराणसी यहां एक ऐसा शहर है जो आपके सामने धीरे-धीरे बड़ा होता है फिर आपका हाथ थामें आपको उसकी असलियत से रूबरू करवाता है। घेवान की इस पहली फिल्म को आप मिस न करें।