समीक्षा हिंदी मूवी : अग्ली
समीक्षक : अजय शास्त्री
प्रमुख कलाकार: रोनित रॉय, अंशिका श्रीवास्तव, राहुल भट्ट, तेजस्विनी कोल्हापुरी, विनीत कुमार सिंह और सुरवीन चावला।
निर्देशक: अनुराग कश्यप
संगीतकारः जी.वी. प्रकाश कुमार, ब्रायन मैकओंबर।
स्टारः चार
बीसीआर (मुंबई) फिल्म निर्माण और अपने किरदार को जीने की प्रक्रिया में कई बार कलाकार फिल्म के सार से प्रभावित और डिस्टर्ब होते हैं, लेकिन उनमें से कुछ ही भूमिका निभाने की उधेड़बुन को यों प्रकट कर पाते हैं। दरअसल, इस गीत के बोल में अनुराग कश्यप की फिल्म का सार है। अनुराग कश्यप की फिल्म ‘अग्ली’ के इस शीर्षक गीत को चैतन्य की भूमिका निभा रहे एक्टर विनीत कुमार सिंह ने लिखा है। फिल्म के थीम को गीतकार गौरव सोलंकी ने भी अपने गीतों में सटीक अभिव्यक्ति दी है। वे लिखते हैं, जिसकी चादर हम से छोटी, उसकी चादर छीन ली, जिस भी छत पर चढ़ गए हम, उसकी सीढ़ी तोड़ दी…या फिल्म के अंतिम भाव विह्वल दृश्य में बेटी के मासूम सवालों में उनके शब्द संगदिल दर्शकों के सीने में सूइयों की तरह चुभते हैं। इन दिनों बहुत कम फिल्मों में गीत-संगीत फिल्म के भाव को छू पाते हैं। ‘अग्ली’ की कुरूपता समझने के लिए इन गीतों को फिल्म देखने के पहले या बाद में सुन लें तो पूरा नजरिया और संदर्भ मिल जाएगा।
अनुराग कश्यप की ‘अग्ली’ शहरी जीवन और समाज में रिश्तों में आए स्वार्थ, चिढ़, ईर्ष्या, छल, कपट, द्वेष, मान मर्दन, अपमान आदि स्याह भावनाओं को समेटती हुई ऐसी कली कथा का सृजन करती है, जिसे पर्दे पर घटते देख कर मन छलनी होता है। अनुराग की इस फिल्म में केवल कली ही निष्कपट चरित्र है। वह अपने पापा को प्यार करती है। उसे नहीं मालूम कि उसकी मां पापा से क्या अपेक्षा रखती है और क्यों दूसरे पापा के साथ रहने लगती है। वह तो पापा के साथ रहने की कोशिश में इस बेरहम समाज के लालच का शिकार होती है। कली की मां शालिनी, कली के पापा राहुल, कली के दूसरे पापा सौमिक, पापा के दोस्त चैतन्य, मामा सिद्धांत, मां की दोस्त राधा सभी किसी न किसी प्रपंच में लीन हैं। वे अपने स्वार्थ और लाभ के लिए किसी भी स्तर तक गिर सकते हैं। रात के पौने तीन बजे अंडरवियर में हजार-हजार के नोट खोंस कर हवा में हजारों के नोट उड़ाते और सोफे पर नोट बिछा कर लेटते कली के मामा को देख कर घिन आ सकती है, लेकिन यही मुंबई जैसे शहरों की घिनौनी काली सच्चाई है। कली के मां या दोनों पापा भी तो दूध के धुले नहीं हैं। ये आत्मकेंद्रित चरित्र खुद के बाएं-दाएं भी नहीं देख पाते। मौका मिलते ही सभी गिरह काटने में माहिर हैं। बतौर -लेखक निर्देशक अनुराग कश्यप की किसी किरदार से सहानुभूति नहीं है। वे निष्ठुर भाव से उन्हें ज्यों के त्यों पेश कर देते हैं। हमारी मुलाकात एक निर्दयी निर्देशक से होती है, जिसकी कटु कल्पना शहर के अंधेरे कोनों और इंसान के संकरे विवरों में प्रवेश करती है। वहां हर किरदार को अपनी कमजोरियों से लगाव है।
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निश्चित ही ‘अग्ली’ अनुराग कश्यप की अलहदा फिल्म है। यहां वे चित्रण, विवरण और प्रस्तुति में मुखर हैं। वे बेलाग तरीके से हमारे समय कसैले अनुभवों को स्थितियों और घटनाओं की तरह पेश करते हैं। कली का गायब होना ऐसा हादसा है, जिसके बाद रिश्तों की कलई उतरने लगती है। गौर करें तो कली के गायब होने का क्रूर रूपक सभी चरित्रों को एक-एक कर बेनकाब करता है। उनकी असली सीरत और सूरत कुरूप है। अनुराग ने किसी भी चरित्र को नहीं बख्शा है। यहां तक कि श्रीलाल और उसकी बुआ या इंस्पेक्टर जाधव भी नहीं बच पाते। ये सभी शहरी समाज के डिस्टर्ब चरित्र हैं। वे इरिटेट करते हैं। अनुराग ने अपनी फिल्म के लिए मुंबई का खास परिवेश चुना है। जीर्ण और जर्जर इमारतों का यह मध्यवर्गीय माहौल आम तौर हिंदी फिल्मों में नहीं दिखाई देता। उनके प्रोडक्शन डिजाइनर और कैमरामैन ने रंग और परिवेश से फिल्म के कथ्य को गढ़ा और प्रभावशाली बना दिया है।
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कलाकारों के चयन और और उनके अभिनय में अनुराग कश्यप ने हिंदी फिल्मों की परिपाटी का पालन नहीं किया है। यथार्थ की जमीन पर खड़े किरदारों का सभी कलाकारों ने मजबूती से पेश किया है। राहुल भट्ट, तेजस्विनी कोल्हापुरी और रोनित रॉय ने प्रमुख किरदारों के तनाव और उलझन को समुचित मात्रा में आत्मसात और प्रस्तुत किया है। छोटी भूमिका में सिद्धांत कपूर ध्यान खींचते हैं। इस फिल्म की उपलब्धि हैं विनीत कुमार सिंह और गिरीश कुलकर्णी। अपने किरदार से विनीत का एकात्मता का नतीजा है फिल्म का टाइटल गीत। गिरीश कुलकर्णी अपनी निर्दोष सादगी से इंस्पेकटर जाधव को असली रंग देते हैं।
अवधि-127 मिनट