November 15, 2024
Tariq Azami

बीसीआर न्यूज़ (तारिक़ आज़मी): पत्रकारिता समाज सेवा का एक जज़्बा हुवा करता था। इसमें था शब्द का प्रयोग मैंने इस कारण किया है क्योकि अधिकतर जज़्बा खत्म हो चूका है। अब ज़्यादातर दिखावा ही बचा हुवा है। इस जज़्बे की वो कीमत हमारे पूर्वजो ने 1857 से लेकर 1947 तक चुकाई है जिसको सोच कर दिल बैठ जाता है। कोई तोप के मुह पर बांध दिया गया और तोप चला दी गई तो कोई पूरी जवानी ही जेल की काल कोठरी में बिता बैठा। किसी ने अपने लहू से दरवाज़े को लाल किया और नाम रख दिया लाल दरवाज़ा तो किसी ने पूरा परिवार ही निछावर कर दिया। घटना तो ऐसी भी हुई कि समाचार पत्र के संपादक के लिए निकला आवश्यकता है में बता दिया गया कि पारिश्रमिक में 2 वक्त की सूखी रोटी और हर लेखनी पर जेल मिलेगी। फिर वो जज़्बा कि सैकड़ो आवेदन आगये एक पद हेतु।
देश हमारे बलिदानो से आज़ाद हुवा लेकिन हमारे बलिदानो को इतिहास के ऐसे पन्नों में दबा दिया गया जो आज तक नहीं खुलता है। हम उन्ही के वंशज है जो आज़ादी की लड़ाई तो लड़े मगर उनको स्वतंत्रता संग्राम सेनानी नहीं माना गया। हमारे पूर्वज खूब बहादुरी से लडे और शहीद भी हुवे मगर स्वतंत्रता संग्राम में हमारी लड़ाइयो को केवल उंगलियो पर गिनने लायक को माना गया कि ये स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। हमने अपने लहू से इंक़ेलाब लिखा मगर ये इंकलाब आजतक समाज की नज़रो से बचा है। आज भी इतिहास के पन्नों को पलट कर देख ले मगर हमारे पुर्वजो के बलिदान का उल्लेख कही देखने को नहीं मिलता है। हमारे पूर्वज जो जंग-ए-आज़ादी कलम से लड़ते हुवे जेल गए अपने जीवन बर्बाद किये जिन्होंने जो अंग्रेज़ो की प्रताड़ना सही उनके परिवारो पर जो जुल्म का कहर टूटा उसका कोई उल्लेख इतिहास में नहीं है। ये सब तो दूर की बात हुई साहेब रिकॉर्ड उठाकर देख ले कि हमारे पूर्वजो के इस बलिदान के लिए उनमें कितनो को स्वतंत्रता संग्राम सेनानी माना गया।
फिर भी आज भी हम अपने पूर्वजो से सीख लिए उनके संस्कारो को खुद में समेटे आज समाज की हर लड़ाई को हम कलम के ज़ोर पर लड़ते है। बहुतेरे ऐसे मौके आये कि हमको दबाने का प्रयास किया गया। मगर हम वो है कि जितना दबाओ उतनी तेज़ी से ऊपर आते है। अपना पूरा ज़ोर लगाया समाज ने मगर हम वो समुन्द्र है जो किसी के लोटे में नहीं आते। हमको अपना काम आता है और करते है फिर क्या हुवा कि कोई हमारी आज़ादी छीनने का प्रयास करता है। फिर क्या हुवा जो कोई हमको गालिया देता है क्या हुवा जो कोई हमको वेश्या कहता है। माना कि कुछ हमारी इंटे भी घुन लग चूँकि है मगर वो कुछ है। हमने दमदार इंटे बहुत है हमारी नेह बहुत मज़बूत है। मगर आज हमारे ऊपर जो उंगलिया उठा रहे है उनका भी विश्लेषण कर लिया जाये।
हमपर उंगलिया उठाने का काम शुरू हुवा अधिकतर फेसबूकिया पत्रकारो की वजह से। जी फेसबूकिया पत्रकार। ये एकदम नई प्रजाति है। ये वो प्रजाति है जिसको पत्रकारिता का “प” भी नहीं आता है मगर हम पर उंगली उठाने में सबसे आगे खड़े होते है। उनके शब्द भी बहुत विचित्र होते है। इनका साथ दिया कॉपी पेस्टिया पत्रकारो ने। ये वो प्रजाति है जो किसी के भी समाचार को, लेख को, सूचना को तत्काल अपना नाम लिख कर उछाल मार देती है। इनके कुछ शब्द होते है जो हमको ये खूब मारते है। जैसे “आज तक क्यों नहीं दिखाया मेन स्ट्रीम मीडिया ने” और “कहा से आई फलनवा पत्रकार के पास इतनी दौलत” इसके साथ ही “ढिमका जगह फलनवा धर्म के लोगो के साथ ऐसा अन्याय हो रहा है फलनवा धर्म के लोग एक हो जाओ” और सबसे बड़ा शब्द “कभी किसी मीडिया ने ये सच क्यों नहीं दिखाया क्योकि बिक गई है मीडिया”।
ये वो पत्रकार है जो जिस जगह जिस शहर जिस गांवों का नाम लिखते है उसे कभी देखा भी नहीं होता। ऐसे कहते है कि बिक गई मीडिया जैसे उनके काका ने आज ही बोली लगा कर ख़रीदा हो। और उनको उपहार स्वरुप दे दिया हो। दो सन्देश जो इनके द्वारा सबसे अधिक प्रचलित है पहला किसी बच्चे का फ़ोटो लगा कर की ये एक गुमशुदा बच्चा है जो फला थाने पर मिला है उसके साथ एक मोबाइल नंबर भी रहता है। आप फ़ोटो डाउनलोड करके देखेगे तो 8-10 महीने पहले का सन्देश नंबर मिलाइये तो पता चला रॉंग नंबर है। अरे भैया एक फ़ोन करके पता तो कर लेते कि जो बच्चा गायब बता रहे हो वो कही जवान तो नहीं हो गया।
इनका एक और सन्देश बहुत ही हस्प्रद होता है। दो गाडियो के नंबर लिखे होते है जो राजस्थान के फौलाद ग्राम से गायो को लेकर अहमदाबाद के लिए आज ही निकली होती है। ये सन्देश लगभग 8-10 महीनो से सोशल मीडिया पर रोज़ धक्के खा रहा है। अरे काका क्या ट्रक धक्का मार के चला रहा है ड्राईवर अगर धक्का भी मार रहा होता तो अब तक कही पहुच गया होता भाई। और तुझे पता है कि ये फौलाद से चली है तो तू क्यों ऐसे चिल्ला रहा है फौलाद के पुलिस कप्तान को फ़ोन करके जानकारी दे दे न ताऊ। मगर नहीं।
ये वो है जिनको पत्रकार नहीं पचड़कार कहा जाये तो बेहतर है। ये वो है कि जिस दिन ये हिल कर पानी खुद से ले लेते है उस दिन उनको परिवार वाले परमवीर चक्र देने की मांग कर बैठते है। मगर ये मेहनत पर इतना भाषण देंगे कि सोशल मीडिया पर हल चला कर हरित क्रांति ला दे।
ऐसे ही एक पचड़कार महोदय के आज मुझे एक ट्रेन में दर्शन हो गए। स्लीपर में मेरी सीट को शेयर करते इन महोदय ने मेरी सीट पर कब्ज़ा बिना मेरे पूछे ही कर डाला। कुछ देर बाद एंकर भाषण बैठे अन्य सहयात्रियों के साथ शुरू हो गए और इन्होंने देश की पूरी अर्थव्यवस्था पर लंबा चौड़ा भाषण दे डाला पूरी तरह साबित कर बैठे कि देश की वर्त्तमान महंगाई का ज़िम्मेदार एनडीए सरकार है। उनका भाषण चल ही रहा था कि तब तक टीटी ने उनको टिकट देखने की दस्तक दे दी। मैंने अपना टिकट दिखाया। उनसे टिकट मांगने पर उन्होंने अपना तत्काल परिचय दिया कि पत्रकार हु। टीटी ने कहा की अच्छी बात है टिकट दिखाइए उन्होंने कहा भीड़ ज़्यादा थी नहीं लिया। टीटी ने कहा कि कोई बात नहीं बना देता हु तो तत्काल उन्होंने तेज़ स्वर में कहा कि आप पत्रकारो का टिकट बनायेगे आप नौकरी नहीं करना चाहते है क्या। अब शांत स्वभाव का लग रहा टिकट निरीक्षक भी ज़िद्द और गुस्से में आगय और बोला आप “मनोज सिन्हा के भी औलाद हो तो मैं टिकट बनाऊंगा। एक तो बिना टिकट हो उसपर से स्लीपर में बैठे हो और उसपर से धौस दिखा रहे हो कौन प्रेस के पत्रकार हो।” उसकी कड़क मिजाज़ से पत्रकार महोदय के तेवर कुछ ढीला पड़ा। उन्होंने अपना जो परिचय दिया उसने मेरे कानो को खोल दिया उन्होंने कहा “इंटरनेट पत्रकार हु”। अब मैंने पुंछ लिया भाई बहुत समय से मीडिया लाइन में हु इस प्रेस का नाम नहीं सुना। तो मान्यवर ने बताया की वो सोशल मीडिया पर लिखते है और स्वतंत्र पत्रकार है। अब पेंच फसी टिकट निरीक्षक उनकी पेनाल्टी चार्ज करना चाह रहा था और मान्यवर पचड़कार महोदय के पास पैसा सिर्फ 50 रुपया था अंततः वो जो अभी तक मुझको चिरकुट समझ रहे थे मुझसे निवेदन की स्थिति में थे कि इस बवाल को निपटाओ भाई। मैंने उनकी मजबूरी देख जार टिकट निरीक्षक से आग्रह किया कि वो जो टिकट बनाना है बना दे भुगतान मैं कर दूंगा। टिकट निरीक्षक ने टिकट तो नहीं बनाया और उनको ऐसे ही छोड़ दिया परंतु उसका शब्द बहुत महंगा रहा वो “बड़का पत्रकार हउवन” कहते हुवे आगे चला गया।
इस घटना से मुझे लगा कि उसने ये शब्द जैसे पुरे पत्रकार समाज को बोल दिये है।खैर कलम के सिपाही को लिखने हेतु कुछ शब्द ही देता गया वो इधर पत्रकारिता का नाम बदनाम करते ये सोशल मीडिया के पचड़कार और इनके कुकृत्यों के बीच समाज को सच का आइना दिखाते हुवे हम कलमकार। सच कहा जाये तो सोशल मीडिया के इन पचड़करो ने पत्रकारिता को ही कलंकित करना शुरू कर दिया है अब आम कलम का सिपाही तो आज भी सच के साथ आईना दिखा रहा है। हम आज भी सच का आइना दिखाते हुवे कभी असामाजिक तत्वों के व्यवहार के शिकार हो रहे है कभी समाज के इन नेताओ की गालिया सुन रहे है कभी कोई कलमकार को वेश्या वेश्या से तुलना करता है तो कभी कोई हमारी लिखने की आज़ादी पर ही अपनी गुलामी की ज़ंजीर डालना चाहता है।कलम का सिपाही तारिक़ आज़मी आज भी सच के साथी समाज को आइना दिखाने वाले सभी कलमकारों को सलाम करता है।

Leave a Reply