बीसीआर न्यूज़ (नई दिल्ली): ‘नोटबंदी’ एक शब्द जो कई घटनाओं का साक्षी बनकर भारतीय राजनीति में उथल पुथल मचा दिया था। दिन बुधवार, दिनांक 08 नवंबर 2017 को नोटबंदी के एक साल हो जाएंगे । नोट बंदी मोदी सरकार द्वारा किया गया एक साहसिक और ऐतिहासिक फैसला था जिसने एक प्रधानसेवक के दूरदर्शी सोच का डंका पूरे विश्व पटल पर बजा दिया। आज़ादी के इतने सालों बाद भी जो गड्ढे अब खाई बन गए थे उसकी भरपाई के लिए नोटबंदी ही एकमात्र विकल्प था। ‘सोने की चिड़िया’ कहे जाने वाला देश भारत, सालों से ‘अंधेर नगरी-चौपट्ट राजा’ के कब्ज़े में रहा था, जिन्होंने देश को अंदर ही अंदर खोखला करते हुए इसके अस्तित्व को भी विनाश के कग़ार पर ला खड़ा कर दिया। तभी एक सरकार ने इस चुनौती को भी चुनौती देने का निर्णय लिया, ये जानते हुए भी कि, उनके इस फैसले से हो सकता है पूरा देश उसके ख़िलाफ़ हो जाए, लेकिन उसने इन सबकी फिक्र किये बिना 8 नवंबर 2016 को एक ऐसा फैसला सुनाया गया जिसने कुछ वर्गों को परेशान किया, कुछ को हैरान किया, कुछपर मुक़दमे दर्ज़ हुए, कुछ को बड़ा ही सुकून मिला। अर्थात्, वो वर्ग जिन्होंने सालों से कर चोरी, भ्रष्टाचार, अवैध धन की कालाबाजारी, आतंकवादी संगठनों को वित्तीय पोषण कर रहे थे, हाँ, उन सभी के रातों की नींद निश्चित ही गायब हुई थी, वो बात अलग है कि कुछ लोगों ने बेमन से इस फैसले का पुरज़ोर विरोध भी किया था।
कोई भी फैसला जो जनहित में हो, उसको कार्यान्वित करने में अथाह समस्याओं का सामना तो करना ही पड़ता है, लेकिन दूरदर्शी फैसलों की परछाई भी दूरगामी होती है ये बात भी हमें समझनी चाहिए। नोटबंदी से आम जनता उतनी त्रस्त नहीं थी जितनी त्राहि-त्राहि, मुंडेरों से झांककर शहरों में बदहवासी से गला फाड़ते उन गोरखधंधों के ठेकेदारों को ज़्यादा त्रासदी का सामना करना पड़ा था ।
अगर नोटबंदी से जनता इतनी ही परेशान होती तो महज़ चन्द महिनों बाद ही हुए उत्तर प्रदेश के चुनाव में ऐतिहासिक जीत दर्ज कर पाती? इस फैसले ने समाज के तथाकथित ठेकेदारों के नाजायज़ मंसूबों पर चोट किया था, जिससे इनके दिन का चैन और रातों की नींद गायब हो गई। नोटबंदी से पहले आए दिन सुनने को मिलता था कि फलाने बॉर्डर से घुसपैठिए घुस कर हमारी सेना पर प्रहार कर रही है। ये कैसे संभव हो सकता था जबतक कि आतंकवाद को पोषित ना किया जाए, लेकिन अब नोटबंदी का असर साफ प्रतीत हो रहा है कि, दुनिया के मानचित्र में भारत की पौराणिक साख फिरसे वापस मिल रही है, चूँकि नकद राशि घरों से निकलकर बैंकों तक पहुंची है जिससे देश की अर्थ व्यवस्था दिनानुदिन सुदृढ़ होती जाएगी।
हमारे मानवीय स्वभाव में एक विलक्षण प्रतिभा होती है कि ‘कान कौआ लेकर उड़ गया’ तो सभी कौवे के पीछे भागते है, अपने कान को छूकर सत्यता को सिद्ध नहीं कर पाते। इसी तरह जब नोटबंदी का फैसला सुनाया गया था तो उसको तुग़लकी फ़रमान का नाम दिया गया चूंकि, जो पूंजीपति वर्ग थे उनके सामने आत्मसमर्पण के अलावा कोई और चारा नहीं था, और भई, हमारे देश में चोरी करके सीनाज़ोरी करने की पुरानी प्रथा है। अमीर और अमीर हो जाए लेकिन गरीब के बदन पर अच्छे कपड़े भी पूंजीवाद लोगों को मंज़ूर नहीं। छाती पीट-पीट कर स्वांग रचने वाली विपक्ष, यह कैसे भूल गई कि जबतक नकद रुपया सरकार तक नहीं पहुंचेगी तबतक यह आकलन कैसे हो सकेगा कि भारत में रुपये की लेन-देन किन-किन प्रक्रियाओं से गुजर कर कहाँ-कहाँ तक पहुंचती है? जब यह आकलन शुरू हुआ तबतक कितने सरकारी, गैर सरकारी लोग नप चुके थे। ‘अच्छे दिन कब आएंगे’ का राग अलापने वाले लोगों को यह समझना होगा कि सालों से खुद रहे गड्ढे इतनी जल्दी तो भरेंगे नहीं, लेकिन हां, अगर हमारे देश की संकुचित अर्थ व्यवस्था इसी (नोटबंदी) तरह की प्रक्रिया से गुजरती रहे तो फिर भारत की तरक्की कोई रोक नहीं सकता।
संकुचित अर्थ व्यवस्था पर दूसरा प्रहार था ‘जीएसटी’, जिसका वर्णन हमने पिछले सरकार में भी सुना था, लेकिन ऐसी कौन सी विपदा आ गई कि जो लोग पहले जीएसटी का पाशा फेंककर लोगों को मुंगेरी लाल के सपने दिखा रहे थे वही लोग अब चीत्कार करते नज़र आ रहें हैं। ये बात तो अतिशयोक्ति की पराकाष्ठा है कि जिस प्रथा को आप लागू करना चाहते थे उसी को अगर किसी और ने लागू कर दिया तो लगे छाती पीटने, पर वह इसलिए संभव है क्योंकि विपक्ष की गद्दी संभाली भी तो महत्वपूर्ण है।जीएसटी मतलब ‘वस्तुएं एवं सेवा कर’। लघु शब्दों में समझा जाए तो जितने भी पुराने ‘कर’ जीर्ण-शीर्ण अवस्था में थे उन सबको मिलाकर अब एक कर दिया गया है, जिसपर केंद्र सरकार और राज्य सरकार का अपना अलग-अलग आधिपत्य है। इसके लागू होने पर भी कई व्यापारी व व्यवसायी वर्ग ने घरियाली आंसुओं का प्रदर्शन किया था मगर दाल गलने की उम्मीद कम थी। जनता के हित में जो भी निर्णय लिये जाते हैं उसके खूबी का अंदाज़ा जनता को लग जाती है, कोई कुछ भी कह ले कर ले कोई फर्क नहीं पड़ता। अब आप ही निर्णय करो कि बिना कर भुगतान के एक विकासशील राष्ट्र कभी विकसित राष्ट्र बन सकता है? शायद कभी नहीं, क्योंकि बदस्तूर, जनता का पैसा ही लोक निर्माण कार्यों में लगाए जाते हैं। कर चोरी हमारे देश की वो विडम्बना है जो चुकाना बहुत कम लोग चाहते हैं और विकास हर किसी को पश्चिमी सभ्यता वाला चाहिए।
बहरहाल, सरकार के पास कोई जादू की छड़ी नहीं होती कि घुमाया और सेंसेक्स ऊपर! सरकार को बहुत सारी प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है, कई सारे अनैतिक चुनौतियां भी स्वीकार करनी पड़ती है, तो इसलिए वर्तमान सरकार के इन फैसलों का सम्मान करते हुए हम भारतवासियों को एक दूसरे की भलाई में सहभागी बनना चाहिए।
(डॉ. अनुज, एक ऐसा नाम जो शल्य चिकित्सा के क्षेत्र में तो दुनिया में अपने नाम का लोहा मनवा चुके हैं लेकिन वर्तमान में साहित्य जगत की दूसरी पारी खेलने के लिए भी तैयार है। पहली पारी में इन्होंने ‘भावरंजिनी’ की रचना की जो प्रकृति, संगीत माधुर्य से सजी एक कवितावली है, उसके बाद अपनी साहित्य कला का बेजोड़ प्रदर्शन करते हुए एक जीवंत उपन्यास “दैट ऐरोटिक साइलेंस” लिखी है जिसका राष्ट्रीय स्तर पर विमोचन बहुत ही जल्द होने वाला है )।