November 15, 2024
jogendra

बीसीआर न्यूज़ (तारिक़ आज़मी/उत्तर प्रदेश): अपने देश का कलम का सिपाही वीर पत्रकार जोगेन्द्र जिसने हमेशा गलत के खिलाफ लिखा, जिसने हर अत्याचार के विरुद्ध लिखा, जिसका हथियार उसकी कलम थी, जिसके कलम से सफ़ेदपोश इस कदर डर गए कि उसकी हत्या ही करवा दी। वो वीर पत्रकार जोगेन्द्र हमारे बीच नहीं रहा। हमेशा सच के लिए लड़ने वाला एक कलमकार मौत से नहीं लड़ सका और चिर निंद्रा में सो गया। मगर अपनी अंतिम साँस लेने के पहले वो एक क्रांति की मशाल जला कर हम पत्रकारो को थमाँ गया है। आज उसकी यह जलाई हुई मशाल ही है कि सफेदपोशों के उत्पीडन के विरुद्ध हम कलमकार खड़े हो गए है। आज दिखता है कि कलमकारों में भी एकता है।
शहीद पत्रकार जोगेन्द्र। जिसने जब आखरी सांस ली तो उस समय परिवार के सदस्यों के अलावा उसके पास कोई पत्रकार नहीं था। यहाँ तक की लखनऊ की सिर्ज़मीं पर विचरण करने वाले हज़ारो की तयदात में पत्रकारो में से एक भी नहीं था। बड़ा आज सोचने को मजबूर कर रहा है ये घटनाक्रम। देश के कोने कोने में विरोध हो रहे है। अपने पत्रकारिता के 17 सालो में मैंने ऐसी पेन डाउन हड़ताल नहीं देखा था। पूरा सोशल मीडिया खामोश था। कोई समाचार नहीं चला। सूत्रो की माना जाये तो बड़े बड़े मीडिया हाउस में ब्रेकिंग 80% तक गिर गई। इस गिरावट ने बड़े मीडिया हाउस को भी सोशल मीडिया के ताकत का अहसास करवा दिया है। मगर मेरी सोच में उभर कर आया एक प्रश्न अभी तक अधूरा ही है जिसका उत्तर मुझको नहीं मिल पा रहा है। आइये आपसे साझा करता हु शायद आपके माध्यम से उत्तर मिल जाये।
घटना के पहले ही दिन से कुछ तूटपूंजियो ने अपनी राजनैतिक रोटिया सेकना चालू कर दिया था। कोई लिस्ट बना रहा था कि सभी पत्रकारो की लिस्ट उच्चाधिकारियों को देकर इस घटना का विरोध करेगे। तो कोई ऐसा भी था जिसको असलहे का लाइसेन्स चाहिए था। पहले वालो से सवाल है कि भैया ये व्हाट्सअप लिस्ट उच्चाधिकारियों को आप भेजोगे कैसे। दूसरे असलहो को लेने वालो से सवाल कि भाई असलहो का लाइसेन्स आसानी से मिल भी जाता है तो भैया कोई भी असलाह एक लाख से कम का नहीं आता है और जहा पत्रकारो की मासिक आय मात्र 10-15 हज़ार है वह पत्रकार कहा से एक लाख का असलहा खरीदेगा। क्योकि जिस पत्रकार के पास एक लाख अपने खर्च के अतिरिक्त होगा उसकी पत्रकारिता भी प्रश्न चिन्ह पैदा करती है।
खैर जो भी हो लोग अलग अलग नज़रिये अपने अपने। मैं पहले दिन से कह रहा था कि भाइयो पहले हमारी प्राथमिकता हो कि जोगेंद का सही से इलाज हो और वो स्वस्थ हो जाये फिर उसके बाद न्याय के लिए भी लड़ा जायेगा। मगर हुवा इसका उल्टा ही। लोगो ने न्याय को प्राथमिकता दी और जोगेन्द्र के सही इलाज पर ध्यान नहीं दिया लखनऊ के सरज़मीं पर टहलने वाले हज़ारो पत्रकारो में से मेरे संगठन के केवल 4 परिचित समय समय पर शहीद जोगेन्द्र से मिलने पहुचते रहे। अगर उसी जगह इन 4 के साथ 40 और भी मिल कर वहा रोज़ जाते तो आज शायद किसी सुहागन का सुहाग न छिना होता किसी बच्चे के सर से बाप का साया नहीं उठा होता किसी बाप को अपने जवान बेटे की लाश को अपने कंधो पर नहीं उठाना पड़ता। क्या कोई इस बात की गारंटी ले सकता है कि जोगेन्द्र की सही चिकित्सा हुई है। क्योकि 50% जला ये शहीद जुझारू था। वो मौत से इतनी आसानी से नहीं हार मानता। प्रत्यक्षदर्शियो की माने तो वो जुझारू अपने घर से एम्बुलेंस तक खुद चल कर आया था। ये इशारा करता है कि कही न कही लापरवाही हुई है। अगर पत्रकार की तबियत इतनी ख़राब हो गई थी तो उसको पीजीआई क्यों नहीं भेजा गया केवल दस से पंद्रह मिनट का रास्ता है। क्यों नहीं प्रदेश सरकार ने पहल कर उसका समुचित इलाज करवाया। कही ऐसा तो नहीं की उसका इलाज ही सही से ना किया गया हो ये सोच कर कि वकील या डॉक्टर तो नहीं है जो हड़ताल पर चले जायेगे। पत्रकार ही तो है क्या कर लेंगे सब।
खैर हमारा वीर साथी हमसब को क्रांति की मशाल जला कर चला गया। इस क्रांति की देंन है कि आज प्रदेश के कोने कोने ने इस वीभत्स घटना का विरोध हो रहा है। जुलूस निकाले न रहे है। मोमबत्तिया जलाई जा रही है मगर प्रदेश की राजधानी अभी भी शांत है। प्रदेश की राजधानी से जो भी विरोध हुवा इस घटना का वो केवल आईरा ने किया डीजीपी को ज्ञापन दिया। डीजीपी ने कडा रुख भी अख्तियार किया मगर इस महानगर के और किसी संगठन ने कोई पहल नहीं की।
वीर शहीद जोगेन्द्र की मौत की राजनीति करने वाले अभी भी राजनीत कर रहे है। उनको सिर्फ अपना फायदा चाहिए। ये लोग जो नेताओ के तलवे चाटते है पत्रकारो के अंदर पनपी एकता ने घुन लगाने का काम शुरू भी कर दिया है। ऐसे ही एक महोदय है जिनको भोकाल में थूका पान की संज्ञा दी जाये तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। मान्यवर के खुद के घर का खर्च कथित उधार पर चलता है जिसका लिया कभी न दिया के मानसिकता के ये सज्जन को फिकर है की जोगेन्द्र के लिए न्याय की मांग करने वाले अखबार में लिखते है कि नहीं। जबकि मान्यवर का खुद का अखबार ही पीडीऍफ़ फ़ाइल में ही दिखता है। भैया ट्रेन पकड़ कर पैदल आ जा इतने लेख अखबारो के दिखा दूंगा की उसको एक बराबर काट कर अगर तू चाहे तो दो चद्दर बना लीहो एक ओढने के काम आएगी दूजी बिछाने के काम आवेगी।
इसके अतिरिक्त इनको चिंता है कि कितने जानते है भैया तेरे पुरे विश्व में जितने पाठक है उतने तो मेरे तेरे खुद के शहर में होंगे। ये सब तू छोड़ तू ये बता दे इतना बड़ा पत्रकार बनता है भैया लिए हुवे उधार पैसे तो लौटा दे काका। और ये भी बता दे काका कि तन्ने आज तक किया क्या है पत्रकारो के लिए। क्या आज तक किसी पत्रकार को न्याय दिलाया है। क्या आज तक किसी पत्रकार के साथ खड़ा हुवा है क्या आज तक किसी पत्रकार की लड़ाई लड़ी है। फिर भी हंगामा है क्यों बरपा……।
एक महोदय है उनको असलहे का लाइसेंस चाहिए। भैया एक पत्रकार का सबसे बड़ा असलहा होता है उसकी कलम जो चलती है तो कमाल की चलती है। किसी तोप से कम रफ़्तार नहीं होती है उसमे। तो भैया तेरा असलहा तुझे मुबारक मुझको तो बस मेरी कलम ही काफी है।
जो भी हो आज देश में पत्रकारो की एक अभूतपूर्व एकता दिख रही है। तो क्या हुवा कि कुछ नेताओ के चमचे पत्रकार इसको तोड़ने में लगे है क्या फर्क पड़ता है कि कुछ जयचंद भी है जो शकुनि की भूमिका में है और पूरा शकुनि का किरदार निभा रहे है। अरे पत्रकार के भेषधारी शकुनि रूपी नेताओ के चमचो तुम्हारी खुद के घर में नहीं चलती बड़ी बाइलाइन की बात छोडो दो लाइन अपनी नहीं लिख पाते हो सिर्फ एक पेड़ के नीचे बैठ कर मुह में पान घुलाते हुवे सिर्फ कोरी बकवास करते हो क्या लगता है तुम पत्रकारो की एकता को तोड़ लोगे क्या ? नहीं तोड़ पाओगे क्योकि आज सभी पत्रकार को अपना भविष्य दिखाई दे रहा है इस उत्पीड़न में। इससे बेहतर है कि तुम अपना काम करो हमको अपना काम करने दो। अपने अभिन्न साथी को इन्साफ न दिलवा सकने वालो अपना मुह बंद रखो हमको अपना काम करने दो।

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