निशा सिंह
बीसीआर न्यूज़/नई दिल्ली: ‘मैं गरीब हूं तो क्या, 10 हजार में बिक जाऊं?’ ये हृदय विदारक शब्द उत्तराखंड की 19 वर्षीय बेटी अंकिता भण्डारी के हैं। अंकिता का गुनाह बस इतना था कि उसने दरिंदों के चंगुल में फंसने से इन्कार कर दिया।
अंकिता ऋषिकेश के एक रिज़ॉर्ट में नौकरी कर अपने परिवार की आर्थिक मदद करना चाहती थी। हत्या के पहले इस बेटी ने अपने दोस्त को मैसेज कर रिज़ॉर्ट के मालिक की करतूत को उजागर किया था। मैसेज में अंकिता ने लिखा था, “मैं गरीब हो सकती हूं, लेकिन 10 हजार रुपये के लिए मैं खुद को बेचूंगी नहीं।” यहां मुझ पर देह व्यापार करने के लिए दबाव बनाया जाता है।
महिला स्वतंत्रता का ढोंग रचने वाले, ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा देने वाले उस वक्त कहां होते हैं, जब एक महिला का चीरहरण हो रहा होता है?
आखिर महिलाओं की सुरक्षा का दम भरने वाले समाज के ठेकेदारों के मुंह पर ताले क्यों लग जाते हैं? खासतौर पर तब, जब गुनहगार सत्तापक्ष का हो। माना कि महिलाओं की हिफाज़त के कानूनों की एक लम्बी सूची है जो महिलाओं को न्याय दिलाने की बातें करती है, पर हमारे देश की न्यायिक प्रक्रिया की सुस्ती की वजह से पीड़िताओं को समय पर न्याय नहीं मिल पाता है। इसका सीधा फायदा अपराधियों को मिल जाता है।
बहरहाल एक महिला ही एक पुरुष की जन्मदात्री होती है। इस सच के बावजूद वही पुरुष स्त्री को लांछित करता है तो कसक उठना लाजिमी है। इस स्थिति में पीड़िता बगैर किसी गुनाह के ही समाज में गुनहगार बन जाती है मात्र इसलिए कि एक महिला को भोग्या मानकर कुछ दरिंदों ने अपनी हवस का शिकार बनाया? इस पुरुष प्रधान समाज में दोषी तो सिर्फ एक महिला ही होती है– ‘कि उसने विरोध नहीं किया होता’, ‘कि उसने ऐसे कपड़े नहीं पहने होते’, कि उसने किसी होटल या रेस्तरां में काम नहीं किया होता’ आदि आदि! महिलाओं को देवी का दर्जा देने वाला आखिर हमारा समाज कहां चला गया? प्रकृति ने स्त्री को कितना खूबसूरत वरदान दिया है, जन्म देने का, लेकिन एक पीड़िता के लिए यही वरदान अभिशाप बन गया है। जब एक महिला के साथ दुष्कर्म होता है या करने की कोशिश की जाती है तो इससे केवल उस महिला को ही क्षति नहीं होती बल्कि उसके पूरे परिवार को इसका दंश झेलना पड़ता है। यौन शोषण केवल एक पुरुष की गंदी सोच की उपज नहीं है। इसलिए ऐसे जघन्य अपराध को रोकने के लिए समाज में सख्त कानून के साथ ही हर वर्ग को आगे आने की जरूरत है।
विधिवेत्ता और दिल्ली बार काउंसिल के चेअरमैन मुरारी तिवारी का कहना है कि महिला यौन उत्पीड़न पहले भी होता था पर, उस समय मीडिया रिपोर्टिंग नहीं होती थी। आज सोशल, प्रिंट व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इतना एडवांस हो चुका है कि लोगों तक हर बात तत्काल पहुंच जाती है। आज महिलाओं में भी जागरूकता बढ़ी है, जिस कारण मामले दर्ज होने में भी वृद्धि हुई है। यौन उत्पीड़न रोकने के लिए सरकार को आगे आने की जरूरत है। सिर्फ कानून बना देने से ही महिला सुरक्षित नहीं हो जायेंगी। इसके लिए देश के हर जिले में फास्ट ट्रैक कोर्ट का गठन होना चाहिए ताकि अपराधियों को जल्द से जल्द सज़ा मिल सके। इससे अपराधियों में कानून के प्रति डर पैदा होगा। सरकार को मीडिया के माध्यम से समाज को जागरूक करना होगा।‘
उनका मानना है कि आज लोगों में धैर्य की कमी है। छोटी-छोटी बातों को लेकर आपा खो देते हैं और एक दूसरे की हत्या करने में भी नहीं हिचकिचाते। अदालतों की आधारभूत संरचना बढ़ाने पर भी उन्होंने जोर दिया। बलात्कार के मामलों में फांसी की सज़ा को उन्होंने सिरे से नकारते हुए कहा कि बलात्कारी बलात्कार करने के बाद साक्ष्य मिटाने के लिए पीड़िता और गवाहों का मर्डर कर सकता है, क्योंकि उसे मालूम होगा कि दोनों ही मामलों में सज़ा फांसी की ही होनी है। इसका खामियाजा सीधे तौर पर पीड़िता और गवाहों को भुगतना पड़ेगा। उनका अनुभव है कि महिलाओं के हितों की रक्षा के लिए बने क़ानूनों का दुरुपयोग भी बढ़ रहा है, जो चिंताजनक है।
नोट:
निशा सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और विभिन्न ज्वलंत विषयों पर अपनी राय बेबाकी से रखती हैं।