November 15, 2024
Secularizm

बीसीआर न्यूज़/दिल्ली: धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत भारत के संविधान में अपनाया गया है, जिसमे अनुच्छेद 25 के अनुसार भारत के सब नागरिकों को किसी भी धर्म को मानने की आजादी है। 3. प्रस्तावना में धर्म निरपेक्ष शब्द का प्रयोग। किया जाता हैं :- 42वें संविधान संशोधन 1976 द्वारा भारतीय संविधान की प्रस्तावना में संशोधन करके धर्म निरपेक्ष शब्द अंकित करके भारत को स्पष्ट रूप से धर्म-निरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है।

लेकिन 1947 में भारत-पाकिस्तान बटवारें के बाद, भारत मे एक विशेष मज़हबी समुदाय धर्म को महत्व देते हुए और हिन्दू व हिन्दू धर्म को सेकुलरिज़्म-धर्म निरपेक्षता के नाम पर हिंदुओं को गुमराह कर शुरू से ही बताया और पढ़ाया गया है कि…

करवाचौथ नारी उत्पीड़न है,
और तीन तलाक़ धार्मिक आस्था..

देवदासी प्रथा वेश्यावृत्ति थी,
और हलाला पवित्र नारी-शुद्धिकरण..

बहुविवाह एक अनैतिक प्रथा थी,
और चार-निक़ाह ईश्वरीय आदेश..

चुटिया रखना धार्मिक ढोंग है,
और बकर-दाढ़ी ईश्वर का नूर है..

यज्ञोपवीत पहनना धार्मिक कट्टरवाद है,
और अरबी लबादा ओढ़ना धार्मिक पहचान है..

तिलक लगाना दकियानूसी कट्टरता है,
और मत्थे पे ईंट से रगड़कर बनाया काला निशान आध्यात्मिक है..

कर्ण छेदन असभ्य क्रूरता है,
और ख़तना अलौकिक प्रक्रिया..

पितृपक्ष तर्पण एक ढोंग है,
और मरहूमों की मज़ारों पर चढ़ावा चढ़ाना श्रद्धा..

तीर्थ-यात्रा पैसा कमाने का मनुवादी ढोंग,
और लाखों रुपये फूँककर हज़-उमरा पवित्र ईश्वर का दर्शन..

जल्लीकट्टू पशु उत्पीड़न है,
और पशुओं की गला रेतकर क़ुर्बानी धार्मिक आस्था..

गौरक्षा माँसाहार के अधिकार का हनन है,
और सुअर खाने वाले शैतान हैं..

दही-हांडी यह खतरनाक़ है,
और छाती-पीट ख़ूनी मातम धार्मिक आस्था..

संस्कृत गुरुकुल कट्टरवाद सिखाते थे,
और मदरसों में आधुनिक वैज्ञानिक शोध होते हैं..

व्रत-उपवास दकियानूसी ढोंग हैं,
और रोज़े वैज्ञानिक शारीरिक तपस्या है..

हिंदुओं में खानपान की छुआछूत अमानवीय है,
और शिया-सुन्नी-अहमदिया का आपसी क़त्लेआम स्नेहिल भाईचारा है..

हज़ारों साल पुरानी सारी इंसानी किताबें झूठी-बकवास हैं,
और धरती चपटी बतानेवाली 1400 साल पुरानी आसमानी किताब में ब्रह्माण्ड का सारा ज्ञान-विज्ञान है..

गुजरात में दुनिया का सबसे बड़ा दंगा हुआ,
पर हज़ारों कश्मीरी हिंदु मारे खुशी के स्वर्ग सिधार गए और लाखों ने कश्मीर छोड़ दिया..

बाक़ी मज़हबों पर संविधान लागू होता है,
और हुज़ूर का मज़हब ख़ुद में संविधान है..

फिलिस्तीनियों पर बहुत अत्याचार होता है,
यजीदी दुनिया की सबसे खुशहाल कौम है..

हमारी संस्कृति और इतिहास है ही नही,
पर इनकी आसमानी किताब का अस्तित्व है..

रोहिंग्या मुसलमान शरणार्थी हैं,
और पाकिस्तानी-अफगानी हिन्दू बड़े सुरक्षित खुशहाल हैं..

इसमें से अधिकांश बातें तो बचपन से सुनते आये हैं…
कहने को तो और बहुत कुछ है, लेकिन शालीनतावश सब कुछ नहीं लिख सकते…
वाह रे! प्रगतिशील धर्मनिर्पेक्षता का लबादा ओढ़े तथाकथित बुद्धिजीवियों…..
वाह रे!
ब्रिटिश कानूनों का अंधानुकरण करता हमारा खोखला क़ानून-संविधान..
चलिये, अब समझ में आया, समस्या है कहाँ ???….
पर अफसोस अभी भी कुछ लोग समझ कर भी समझना नही चाह रहे।

लेकिन अगर देखा जाए तो, धर्मनिरपेक्षता एक जटिल तथा गत्यात्मक अवधारणा है। इस अवधारणा का प्रयोग सर्वप्रथम यूरोप में किया गया। यह एक ऐसी विचारधारा है जिसमें धर्म और धर्म से संबंधित विचारों को इहलोक संबंधित मामलों से जान बूझकर दूर रखा जाता है अर्थात् तटस्थ रखा जाता है। धर्मनिरपेक्षता राज्य द्वारा किसी विशेष धर्म को संरक्षण प्रदान करने से रोकती है।

भारत में इसका प्रयोग आज़ादी के बाद अनेक संदर्भो में देखा गया तथा समय-समय पर विभिन्न परिप्रेक्ष्य में इसकी व्याख्या की गई है।

धर्मनिरपेक्षता का अर्थ:
धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि राज्य राजनीति या किसी गैर-धार्मिक मामले से धर्म को दूर रखे तथा सरकार धर्म के आधार पर किसी से भी कोई भेदभाव न करे।

धर्मनिरपेक्षता का अर्थ किसी के धर्म का विरोध करना नहीं है बल्कि सभी को अपने धार्मिक विश्वासों एवं मान्यताओं को पूरी आज़ादी से मानने की छूट देता है।
धर्मनिरपेक्ष राज्य में उस व्यक्ति का भी सम्मान होता है जो किसी भी धर्म को नहीं मानता है।

धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में धर्म, व्यक्ति का नितांत निजी मामला है, जिसमे राज्य तब तक हस्तक्षेप नहीं करता जब तक कि विभिन्न धर्मों की मूल धारणाओं में आपस में टकराव की स्थिति उत्पन्न न हो।

धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में संवैधानिक दृष्टिकोण:
भारतीय परिप्रेक्ष्य में संविधान के निर्माण के समय से ही इसमें धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा निहित थी जो सविधान के भाग-3 में वर्णित मौलिक अधिकारों में धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार (अनुच्छेद-25 से 28) से स्पष्ट होती है।

भारतीय संविधान में पुन: धर्मनिरपेक्षता को परिभाषित करते हुए 42 वें सविधान संशोधन अधिनयम, 1976 द्वारा इसकी प्रस्तावना में ‘पंथ निरपेक्षता’ शब्द को जोड़ा गया। यहाँ पंथनिरपेक्ष का अर्थ है कि भारत सरकार धर्म के मामले में तटस्थ रहेगी। उसका अपना कोई धार्मिक पंथ नही होगा तथा देश में सभी नागरिकों को अपनी इच्छा के अनुसार धार्मिक उपासना का अधिकार होगा। भारत सरकार न तो किसी धार्मिक पंथ का पक्ष लेगी और न ही किसी धार्मिक पंथ का विरोध करेगी।
पंथनिरपेक्ष राज्य धर्म के आधार पर किसी नागरिक से भेदभाव न कर प्रत्येक व्यक्ति के साथ समान व्यवहार करता है।

भारत का संविधान किसी धर्म विशेष से जुड़ा हुआ नहीं है।

धर्मनिरपेक्षता का सकारात्मक पक्ष:
धर्मनिरपेक्षता की भावना एक उदार एवं व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है जो ‘सर्वधर्म समभाव’ की भावना से परिचालित है।
धर्मनिरपेक्षता सभी को एकता के सूत्र में बाँधने का कार्य करती है।
इसमें किसी भी समुदाय का अन्य समुदायों पर वर्चस्व स्थापित नहीं होता है।
यह लोकतांत्रिक व्यवस्था को मज़बूती प्रदान करती है तथा धर्म को राजनीति से पृथक करने का कार्य करती है। धर्मनिरपेक्षता का लक्ष्य नैतिकता तथा मानव कल्याण को बढ़ावा देना है जो सभी धर्मों का मूल उद्देश्य भी है।
धर्मनिरपेक्षता का नकारात्मक पक्ष:
भारतीय परिप्रेक्ष्य में धर्मनिरपेक्षता को लेकर आरोप लगाया जाता है कि यह पश्चिम से आयातित है।अर्थात् इसकी जड़े/ उत्पत्ति ईसाइयत में खोजी जाती हैं।
धर्मनिरपेक्षता पर धर्म विरोधी होने का आक्षेप भी लगाया जाता है जो लोगों की धार्मिक पहचान के लिये खतरा उत्पन्न करती है। भारतीय संदर्भ में र्मनिरपेक्षता पर आरोप लगाया जाता है कि राज्य बहुसंख्यकों से प्रभावित होकर ल्पसंख्यकों के मामले में हस्तक्षेप करता है जो अल्पसंख्यकोंं के मन में यह शंका उत्पन्न करता है कि राज्य तुष्टीकरण की नीति को बढ़ावा देता है। ऐसी प्रवृत्तियाँ ही किसी समुदाय में साप्रदायिकता को बढ़ावा देती हैं। धर्मनिरपेक्षता को कभी-कभी अति उत्पीड़नकारी रूप में भी देखा जाता है जो समुदायों/व्यक्तियों की धार्मिक स्वतंत्रता में अत्यधिक हस्तक्षेप करती है।
यह वोट बैंक की राजनीति को बढ़ावा देती है।

भारतीय धर्मनिरपेक्षता तथा पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता के बीच अंतर:

भारतीय धर्मनिरपेक्षता के बीच अंतर को निम्नलिखित बिंदुओं से स्पष्ट किया जा सकता है-

धर्मनिरपेक्षता के समक्ष चुनौतियाँ:

भारत में हमेशा से धर्मनिरपेक्षता का मुद्दा सार्वजानिक वाद-विवाद और परिचर्चाओं में मौजूद रहा है। एक तरफ जहाँ हर राजनीतिक दल धर्मनिरपेक्ष होने की घोषणा करता है वही धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में कुछ पेचीदा मामले हमेशा चर्चाओं में बने रहते हैं जो समय-समय पर अनेक प्रकार की चिंताओं के साथ धर्मनिरपेक्षता के समक्ष चुनौतियाँ उत्पन्न करते रहे जैसे-

वर्ष 1984 के दंगों में दिल्ली तथा देश के अन्य हिस्सों में लगभग 2700 से अधिक लोगों का मारा जाना।
वर्ष 1990 में हजारों कश्मीरी पंडितों को घाटी से अपना घर छोड़ने के लिये विवश करना।
वर्ष 1992-1993 के मुम्बई दंगे।

वर्ष 2003 में गुजरात के दंगे जिसमे मुस्लिम समुदाय के लगभग 1000 से अधिक लोग मारे गए।

गौहत्या रोकने की आड़ में धार्मिक और नस्लीय हमले।
नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA) तथा नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिज़न बिल (NRC) के खिलाफ देश भर में उत्पन्न विरोध एवं हिंसा इत्यादि।
उपरोक्त सभी उदाहरणों में किसी-न-किसी रूप में नागरिकों के एक समूह को बुनियादी ज़रूरतों से दूर रखा गया। परिणामस्वरूप भारत में धर्मनिरपेक्षता समय-समय पर धार्मिक कट्टरवाद, उग्रराष्ट्रवाद तथा तुष्टीकरण की नीति के कारण शंकाओं एवं विवादों में घिरी रहती है।

यूनिफार्म सिविल कोड यानी एक समान नागरिक सहिता जो धर्मनिरपेक्षता के समक्ष चुनौती प्रस्तुत करती है, को मज़बूती से लागू करने की आवश्यकता है।

भारतीय राज्यों द्वारा समय -समय पर धार्मिक अत्याचार का विरोध करने तथा राज्य के हित में धर्मनिरपेक्षता के महत्त्व को समझाने के लिये धर्म के साथ निषेधात्मक संबंध भी स्थापित किया गया हैं। यह दृष्टिकोण अस्पृश्यता पर प्रतिबंध, तीन तलाक, सबरीमाला मंदिर में महिलाओं का प्रवेश जैसी कार्रवाइयों में स्पष्ट रूप से झलकता है।।

विनुविनीत त्यागी
(बी.सी.आर. न्यूज़)

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